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उत्तर -


पटेल नगर,
देहरादून।
तिथि: ..........
प्रिय सखी कला,
प्यार!
आशा करती हूँ तुम व तुम्हारा परिवार वहाँ कुशलमंगल होगा। यहाँ भी सब कुशलमंगल है। तुम्हें यह बताना चाहती हूँ कि मैंने तुम्हारे लिए बहुत सारी पुस्तकें खरीदी हैं। जब तुमसे मिलुँगी तब तुम्हें यह किताबें दे दुँगी। 13 फरवरी, 2000 को रविवार का दिन । पुस्तक मेले का अंतिम दिन। पिताजी ने प्रात: ही घोषणा कर दी कि आज ‘पुस्तक मेला’ देखने जाएँगे। पुस्तक-प्रदर्शनी पाँच हॉलों में लगी थी । तीनों हॉल एक दूसरे से पर्याप्त दूरी पर थे। सबसे सुन्दर स्थान अंग्रेजी वालों का था। वे दो हॉल और तीसरे हॉल का ग्राउंड फ्लोर घेरे हुए थे। हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की पुस्तकें ज़रा दूर 6 नम्बर हॉल में थीं । हिन्दी को पृथक हॉल प्रदान नहीं किया गया था।
इस मंडप से हमने 5-6 निबन्धों की तथा 4-5 सामयिक विषयों की पुस्तकें खरीदीं। इस मंडप को देखने में समय लगा। यहाँ पिताजी के मिलने वाले कुछ मित्र, माताजी की शिष्याएँ, बहिन के सहपाठी और मेरे मित्र मिले। यह मंडप भारतीय संस्कृति और सभ्यता का नमूना था। वेश-भूषा, आचार-व्यवहार, बोलचाल के सभी रूप और रंग इस मंडप में देखने को मिलते थे । बंगाल, मद्रास, महाराष्ट्र, पंजाब तथा उत्तरी भारत की नारियों को धोती बाँधने और ओढ़ने में विविधता देखकर तथा सचमुच हम भारतीय हैं। यहाँ विविधता में भी एकरूपता के दर्शन हुए।
आशा करती हूँ कि तुमसे जल्दी ही मुलाकात होगी। गर्मी की छुट्टी में दिल्ली ज़रूर आना। परिवार में बड़ों को चरण-स्पर्श व छोटों को प्यार कहना।
तुम्हारी सखी,
अरूणा


 

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